Saturday 30 August 2014

10- सावन सोमवार - क्या करें, कैसे करें: श्रावण में शिव पूजा से करें सभी अरिष्टों का निवारण

सावन सोमवार - क्या करें, कैसे करें: श्रावण में शिव पूजा से करें सभी अरिष्टों का निवारण

श्रावण मास और भगवान शिव

सनातन धर्म में सभी प्रमुख देवी - देवताओं के लिए कोई ना कोई दिन, सप्ताह, पक्ष या माह निर्धारित है। श्रावण माह के पूरे ३० दिन देवों के देव भगवान शिव को समर्पित हैं। महाभारत कथा के अनुसार इसी माह में भगवान शिव ने समुद्र मंथन के दौरान निकले हलाहल को पूरे ब्रह्माण्ड की रक्षा के लिए स्वयं पी लिया था।

क्या है महत्व

कहा जाता है कि हलाहल पीने के कारण भगवान शिव अत्यंत तप्त हो गए, ज़हर के प्रभाव से वे बहुत व्याकुल हो गए, शीतलता प्राप्त करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने बहुत प्रयत्न किये परन्तु उन्हें आराम नहीं मिल सका। अंततः उन्होंने मस्तक पर अमृत स्वरूप अत्यंत ही शीतल चन्द्रमा को धारण किया जिससे उन्हें शीतलता प्राप्त हुई। 
चूँकि भगवान शिव ने समस्त चर - अचर प्राणियों की रक्षा के लिए अपने को तप्त कर दिया था, अतः उनके प्रति आस्था, भक्ति और कृतज्ञता प्रकट करने हेतु हम आज भी भगवान शिव का शीतलता प्रदान करने वाली चीजों से अभिषेक करते हैं।

दूसरी तरह से यदि देखा जाए तो भगवान शिव का संहारक रूप रूद्र है, रूद्र अर्थात अग्नि। मानव मात्र विभिन्न प्रकार की अग्नि से तप्त है जैसे रोग, शत्रु, आर्थिक कष्ट, मानसिक कष्ट ये सभी प्रकार के कष्ट मनुष्यों को तप्त करते रहें हैं। सभी प्रकार की कष्ट रूपी अग्नि किसी ना किसी प्रकार से रूद्र का ही स्वरूप है, क्योंकि शिव पुराण के अनुसार शिव ही ब्रह्म रूप में सृष्टि के रचयिता, विष्णु रूप में पालनकर्ता तथा रूद्र रूप में संहार कर्ता हैं। इसी कष्ट रूपी अग्नि अर्थात रूद्र को शांत करने के लिए हम उन्हें अभिषेक अर्थात स्नान कराते हैं।


क्या है लाभ
भावहिं मेटि सकहि त्रिपुरारी ! अर्थात होनी को कोई टाल सकने का सामर्थ्य रखता है तो भगवान शिव ही हैं। किसी भी ग्रह का दुष्प्रभाव क्यों ना हो उसके प्रभाव को कम या समाप्त करने का अंतिम उपाय भगवान शिव की आराधना ही है। प्राणी मात्र के जितने भी सांसारिक कष्ट हैं उनका कारण किसी ना किसी ग्रह का दुष्प्रभाव होना ही है, जो सबसे अधिक पाप ग्रह अर्थात कष्ट देने वाले ग्रह हैं वे हैं - शनि, राहु और केतु। किसी भी व्यक्ति की कुंडली में अधिकांशतः और सबसे दुष्कर जितने भी योग हैं वे इन्ही के कारण बनते हैं, शनि साढ़े साती, ढैया, काल सर्प, केपद्रुम योग, विष्कुम्भ योग, बालारिष्ट योग, मारकेश योग जैसे अत्यंत ही कष्टकारी योगों का निदान केवल और केवल भगवान शिव की आराधना या अनुष्ठान ही है। आप चाहे सांसारिक कष्टों से छुटकारा पाना चाहते हों या मोक्ष, शिव अंतिम गंतव्य हैं।

कैसे करें पूजा
भगवान शिव को भोले बाबा भी कहा जाता है, भोले अर्थात अत्यंत सरल। इनकी पूजा के लिए किसी भी बहुमूल्य वस्तु या जटिल विधि - विधान की आवश्यकता नहीं होती, भगवान शिव की पूजा तो अत्यंत ही सुलभ और बिना खर्चे वाली वस्तुओं से संपन्न हो जाती है। आदि गुरु शंकराचार्य ने तो मानस पूजा की विधि बतायी है, मानस पूजा अर्थात मन से ही सबकुछ अर्पित करने की विधि। इस विधि में हम भौतिक रूप से जितनी वस्तुओं का प्रयोग पूजा में करते हैं जैसे - फूल, चन्दन, धूप, दीप नैवैद्य इत्यादि इन सभी वस्तुओं को मानसिक रूप से अर्पित करते हैं।

भगवान शिव की प्रिय वस्तुएँ

भगवान शिव को गंगा जल सबसे प्रिय है, क्योंकि उन्होंने अपनी अत्यधिक तप्तता के समय उन्हें और चन्द्रमा को धारण किया था, अतः भगवान शिव का गंगा जल से नित्य प्रातः अभिषेक सर्वोत्तम है।
भगवान शिव को बिल्व पत्र भी अत्यंत प्रिय है, बिल्व पत्र के बारे में कहा गया है -
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रम च त्रियायुधम्, त्रिजन्म पाप संहारम एकबिल्वम शिवार्पणम।
ये दो वस्तुएं भोले नाथ को अत्यंत प्रिय हैं, सामान्य मनुष्य सिर्फ इन्ही दो वस्तुओं से भी नियमित भगवान शिव की आराधना कर सकता हैं, गंगा जल से अभिषेक करते समय सिर्फ उनके पंचाक्षर मन्त्र "ॐ नमः शिवाय" का उच्चारण ही प्रयाप्त है। इसके अलावा यदि आप चाहें तो गंगा जल में गाय का दूध, थोड़ी शहद, थोड़ा गाय का ही शुद्ध घी और श्वेत चन्दन मिलाकर उपरोक्त पंचाक्षर मन्त्र से भगवान शिव का अभिषेक करें और उसके उपरांत बिल्व पत्र अर्पित करें। यह ध्यान रखे की बिल्व पत्र नए हों, कोमल हों, छिद्र रहित हों और पत्ते टूटे हुए ना हों।

पूजा के लिए दिन - वैसे तो भगवान शिव की पूजा के लिए श्रावण मास में कोई भी दिन देखने की आवश्यकता नहीं परन्तु उनका सबसे प्रिय ग्रह चन्द्रमा है, अतः चन्द्रमा से सम्बंधित दिन सोमवार अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है।
पूजा के लिए समय- भगवान शिव के लिए प्रातः काल और प्रदोष काल अर्थात गोधूलि बेला सर्वोत्तम मानी जाती है।
पूजा के लिए मुहूर्त- भगवान शिव की सामान्य पूजा के लिए किसी भी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं है परन्तु यदि किसी विशेष प्रयोजन से कोई अनुष्ठान जैसे - रुद्राभिषेक, रूद्र पाठ, महामृत्युंजय जैसे अनुष्ठान करना चाहते हैं तो अन्य मास में तो मुहूर्त देखना होता है, परन्तु श्रावण माह में भगवान शिव की पूजा या अनुष्ठान दोनों के लिए ही मुहूर्त देखने की कोई आवश्यकता नहीं होती है।

पूजा के लिए मन्त्र/स्तुति- भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनके नाम पर आधारित उनका पंचाक्षर मंत्र "ॐ नमः शिवाय।" ही पर्याप्त है परन्तु यदि आप रूद्र गायत्री का जप यथा शक्ति कर सकें तो अत्यंत उपयोगी होगा-
"ॐ तद्पुरुषाय विदमहे, महादेवाय धीमहि, तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।"
इसके साथ ही उनकी स्तुति में "ॐ नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय …… " या तुलसी दास रचित रुद्राष्टकम "नमामि शमीशान निर्वाण रूपं, विभु व्यापकं ब्रह्मवेद स्वरूपं.......... " का पाठ भी अत्यंत उपयोगी है।

पूजा के लिए विशेष- शिव भक्तों तथा किसी भी कष्ट से पीड़ित व्यक्तियों के लिए भगवान शिव की आराधना अत्यंत ही श्रेयस्कर है। मैंने एक सामान्य व्यक्ति के लिए जिसके पास घर - गृहस्थी तथा कार्य - व्यवसाय के साथ - साथ कैसे कम समय में आसान तरीके से भगवान शिव की आराधना और उसका लाभ उठाते हुए इस दुष्कर जीवन पथ पर आगे बढ़ने का उपाय सुझाने का प्रयत्न किया। भगवान शिव के लिए आपकी सच्ची श्रद्धा ही पर्याप्त है। ऊपर लिखी पूजा आप स्वयं कर सकते हैं इसके लिए किसी विद्वान की ज़रुरत नहीं, परन्तु विशेष अनुष्ठान जैसे - रुद्राभिषेक, रूद्र पाठ, महामृत्युंजय इत्यादि किसी विद्वान के द्वारा ही कराएं।

किसी और शंका या समाधान के लिए हमें लिखें।
ॐ नमः शिवाय। 

Friday 25 July 2014

9-अंग फड़कने का महत्व



अंग फड़कने का महत्व

अंगों के फड़कने का महत्व प्राचीन समय से ही चला आ रहा है.प्रत्येक शास्त्र या विश्व का कोई भी व्यक्ति इस
विज्ञान से थोडा बहुत परिचित है तथा घर परिवार या समाज में सभी इसके फल को जानते है.
दायीं आँख ऊपर की ओर के फलक में फड़कती है तो धन,कीर्ति आदि की वृद्धि होती है.नौकरी में पदोन्नति होती है नीचे का फलक फड़कता है तो अशुभ होने की संभावना रहती है.
बाँयी आँख-का उपरी फलक फड़कता है तो दुश्मन से और अधिक दुश्मनी हो सकती है.नीचे का फलक फड़कता है तो किसी से बेवजह बहस हो सकती है और अपमानित होना पड़ सकता है.
बाँयी आँख की नाक की ओर का कोना फड़कता है जिसका फल शुभ होता है.पुत्र प्राप्ति की सूचना मिल सकती है.या किसी प्रिय व्यक्ति से मुलाक़ात
हो सकती है. दांयी आँख फड़कती है तो यह शुभ फलदायक होता है.लेकिन अगर
किसी स्त्री की दांयी आँख फड़कती है तो- उसे अशुभ माना जाता है. दोनों आँखे एक साथ फड़कती हो तो चाहे वह
स्त्री की हो या पुरुष की, उनका फल एक जैसा ही होता है. किसी बिछुड़े हुए अच्छे मित्र से मुलाक़ात हो सकती है.
दांयी आँख पीछे की ओर फड़कती है- तो इसका फल अशुभ होता है. बाँयी आँख ऊपर की और फड़कती हो तो इसका फल शुभ होता है.स्त्री की बाँयी आँख
फड़कती हो तो शुभ फल होता है.
कंठ गला तेज गति से फड़कता है- तो स्वादिष्ट और मनपसंद भोजन मिलता है.किसी स्त्री का कंठ फड़कता है तो उसे गले आभूषण प्राप्त होता है.
कंठ का बांया भाग फड़कता है तो- धन की उपलब्धि कराता है.किसी स्त्री के कंठ के निचले हिस्से का फड़कना कम मूल्य केआभूषणों की प्राप्ति की सूचना देता है.कंठ का उपरी भाग फड़कता है तो सोने की माला मिलने की संभावना बड जाति है.कंठ की घाटी के नीचे फड़कन
होती है तो किसी हथियार से घायल होने
की संभावना रहती है.
सिर के बाँयी ओर के हिस्से में फड़कन हो तो- इसे बहुत ही शुभ माना गया है.आने वाले दिनों में यात्रा करनी पड़ सकती है. यदि आपकी यात्रा बिजनेस से सम्बंधित है तो ज्यादा नहीं तो थोडा बहुत लाभ अवश्य होगा.आपके सिर
के दांयी ओर के हिस्से में फड़कन है तो यह शुभ फलदायक स्थिति है आपको धन,किसी राज सम्मान, नौकरी में पदोंन्नती, किसी प्रतियोगिता में पुरस्कार, लाटरी में जीत,भूमि लाभ
आदि की प्राप्ति हो सकती है.
आपके सिर का पिछला हिस्सा फड़कता है तो समझ लीजिए आपका विदेश जाने का योग बन रहा है.और वंहा आपको धन की प्राप्ति भी होने वाली है.लेकिन अपने देश में लाभ की कोई संभावना नहीं है आपके सिर के अगले हिस्से में फड़कन हो रही है तो यह स्थिति स्वदेश या परदेश दोनों में ही धन मान प्राप्ति का कारण बन सकती है.
आपका सम्पूर्ण सिर फड़क रहा है तो यह सबसे अधिक शुभ स्थिति है आपको दुसरे का धन मिल सकता है,मुकद्दमे में
जीत हो सकती है.राजसम्मान मिल
सकता है.या फिर भूमि की प्राप्ति हो सकती है.
सम्पूर्ण मूँछो में फड़कन है तो- इसका फल बहुत ही शुभ माना गया है इससे दूध,दही,घी,धन धान्य का योग बनता है.अगर आपकी मूंछ का दांया हिस्सा फड़कता है तो इसे शुभ समझना चाहिए.
आपकी बाँयी मूंछ फड़कती है तो आपका किसी से बहस या झगड़ा हो सकता है.
आपके तालू में फड़कन है तो- यह आर्थिक लाभ का शुभ संकेत है.दांया तालू में फड़कन है तो यह बिमारी की सूचना दे रहा है.बांये तालू में फड़कन है तो आप किसी अपराध में जेल जा सकते है.
आपके दांये कंधे में फड़कन में फड़कन है तो- आपको धन, सम्मान और बिछुड़े
हुए भाई से मिलाप हो सकता है.बांया कंधा फड़क रह है तो रक्त विकार या वात सम्बन्धी विकार उत्पन्न हो सकते है.
आपके दांये घुटने में फड़कन है तो- आपको सोने की प्राप्ति हो सकती है.और यदि दांये घुटने का निचला हिस्सा फड़क रहा है तो यह शत्रु पर विजय हासिल करने का संकेत है.आपके बांये घुटने का निचला हिस्सा फड़क रहा है
तो आपके कार्य पूरा होने की संभावना बड जाति है.बांये घुटने
का उपरी हिस्सा फड़क रहा है तो इसका फल कुछ
नहीं होता है.
आपके पेट में फड़कन है तो- यह अन्न
की समृद्धि की सूचना देता है.यदि पेट
का दांया हिस्सा फड़क रहा है तो घर में धन दौलत
की वृद्धि होगी सुख और
खुशहाली बडती है.अगर आपके पेट
का बांया हिस्सा फड़कता है तो धन
समृद्धि धीमी गति से बडती है वैसे यह शुभ नहीं है. पेट का उपरी भाग
फड़कता है तो यह अशुभ होता है.लेकिन पेट के नीचे का भाग फड़कता है तो स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति होती है.
पीठ दांयी ओर से फड़क रही है तो- धन धान्य की वृद्धि हो सकती है लेकिन
पीठ के बांये भाग का फडकना ठीक
नहीं होता है.मुकद्दमे में हार या किसी से
झगड़ा हो सकता है.बाँयी पीठ में फड़कन धीमी हो तो परिवार में कन्या का जन्म होना संभव है और फड़कन तेज हो तो अपरिपक्व यानि समय से पहले ही प्रसव हो सकता है.पीठ का उपरी हिस्सा फड़क रहा हो तो धन
की प्राप्ति होती है ।

8- 9महीने 9दिन गर्भ मे बच्चा क्यो रहता है?



9महीने 9दिन गर्भ मे बच्चा क्यो रहता है?

 

 9 महीने 9 दिन गर्भ मे बच्चा क्यो रहता है क्या है बच्चे को महान बनाने का वैज्ञानिक उपाय ?
लोग ज्योतिष पर बहुत कम विश्वास करते है क्योकि ज्योतिषियों ने ही ज्योतिष का विनाश किया है । उनके अधूरे ज्ञान के कारण ऐसा हुआ है । गर्भ मे बच्चा 9 महीने और 9 दिन ही क्यो रहता है । इसका एक वैज्ञानिक आधार है । हमारे ब्रह्मांड के 9 ग्रह अपनी अपनी किरणों से गर्भ मे पल रहे बच्चे को विकसित करते है । हर ग्रह अपने स्वभाव के अनुरूप बच्चे के शरीर के भागो को विकसित करता है । अगर कोई ग्रह गर्भ मे पल रहे बच्चे के समय कमजोर है तो उपाय से उसको ठीक किया जा सकता है ।
गर्भ से 1 महीने तक शुक्र का प्रभाव रहता है । अगर गर्भावस्था के समय शुक्र कमजोर है तो शुक्र को मजबूत करना चाहिए । अगर शुक्र मजबूत होगा तो बच्चा बहुत सुंदर होगा । और उस समय स्त्री को चटपटी चीजे खानी चाहिए । शुक्र का दान न करे । अगर दान किया तो शुक्र कमजोर हो जाएगा । कुछ अनाड़ी ज्योतिषी अधूरे ज्ञान के कारण शुक्र का दान करा देते है । दान सिर्फ उसी ग्रह का करे जो पापी और क्रूर हो और उसके कारण गर्भपात का खतरा हो ।
दूसरे महीने मंगल का प्रभाव रहता है । मीठा खा कर मंगल को मजबूत करे ।तथा लाल वस्त्र ज्यादा धारण करे ।
तीसरे महीने गुरु का प्रभाव रहता है । दूध और मीठे से बनी मिठाई या पकवान का सेवन करे तथा पीले वस्त्र ज्यादा धारण करे ।
चौथे महीने सूर्य का प्रभाव रहता है । रसों का सेवन करे तथा महरून वस्त्र ज्यादा धारण करे ।
पांचवे महीने चंद्र का प्रभाव रहता है । दूध और दहि तथा चावल तथा सफ़ेद चीजों का सेवन करे तथा सफ़ेद ज्यादा वस्त्र धारण करे ।
छटे महीने शनि का प्रभाव रहता है । कशीली चीजों केल्शियम और रसों के सेवन करे तथा आसमानी वस्त्र ज्यादा धारण करे ।।
सातवे महीने बुध का प्रभाव रहता है । जूस और फलों का खूब सेवन करे तथा हरे रंग के वस्त्र ज्यादा धारण करे ।।
आठवे महीने फिर चंद्र का तथा नौवे महीने सूर्य का प्रभाव रहता है । इस दौरान अगर कोई ग्रह नीच राशि गत भ्रमण कर रहा है तो उसका पूरे महीने यज्ञ करन चाहिए । जितना गर्भ ग्रहों की किरणों से तपेगा उतना ही बच्चा महान और मेधावी होगा । जैसी एक मुर्गी अपने अंडे को ज्यादा हीट देती है तो उसका बच्चा मजबूत पैदा होता है । अगर हीट कम देगी तो उसका चूजा बहुत कमजोर होगा । उसी प्रकार माँ का गर्भ ग्रहों की किरणों से जितना तपेगा बच्चा उतना ही मजबूत होगा । जैसे गांधारी की आँखों की किरणों के तेज़ से दुर्योधन का शरीर वज्र का हो गया था ।

Wednesday 16 July 2014

7-सोलह संस्कार



सोलह संस्कार 

 

शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हर स्त्री और पुरुष दोनों के लिए आवश्यक माना गया है। शास्त्रों में जीवन के सोलह संस्कार बताए गए हैं। इन सभी संस्कारों का पालन करना शास्त्रों ने जरूरी होता है। ये सभी 16 संस्कार व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं। प्राचीन काल से ही इन सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारों का निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है। आज के समय में काफी अधिक ऐसे लोग हैं जो इन संस्कारों के विषय में जानते नहीं हैं। ये सोलह संस्कार कौन-कौन से हैं और इनका हमारे जीवन में क्या महत्व हैकर्णवेध संस्कार- इसका अर्थ है- कान छेदना। प्राचीन परंपरा के अनुसार शिशु के कान और नाक भी छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इस संस्कार से श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार- उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानी यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। वातावरण की नकारात्मक ऊर्जा से शिशु का बचाव होता है। वेदारंभ संस्कार- इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है। इस संस्कार से ही शिशु को अच्छाई और बुराई में फर्क करने की समझ आती है। वेदारंभ संस्कार से ही शिशु को जीवन जीने की सही कला का ज्ञान प्राप्त होता है। केशांत संस्कार- केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था। समावर्तन संस्कार- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना। विवाह संस्कार- यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। संतान उत्पन्न की जाती है और इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है। अंत्येष्टी संस्कार- अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। इसका आशय यह है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। गर्भाधान संस्कार- यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों के अनुसार मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है। मनुष्य जीवन का यही भी एक अनिवार्य उद्देश्य है जिसके अंतर्गत मनुष्य को संतान उत्पन्न करनी चाहिए। पुंसवन संस्कार- गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है। इस संस्कार के अंतर्गत गर्भस्थ शिशु की माता को अपने आहार और आचरण में विशेष ध्यान चाहिए। यह संस्कार गर्भाधान के तीसरे माह में किया जाना चाहिए। सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो। नामकरण संस्कार- शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। शिशु के जन्म के बाद दस दिनों तक सूतक माना जाता है, इसी वजह से नामकरण संस्कार 11वें दिन किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार नाम के आधार पर शिशु के भविष्य संबंधित बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसी वजह से नामकरण संस्कार का विशेष महत्व है। निष्क्रमण संस्कार- निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। शिशु के जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे। शिशु को बाहरी वातावरण से परिचित करना चौथे माह से शुरू कर देना चाहिए। शिशु को सूर्य और चंद्र की रोशनी दिखाना चाहिए। ऐसा करने पर शिशु यशस्वी और दीर्घायु होता है। अन्नप्राशन संस्कार- यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। इसका संस्कार का मुख्य उद्देश्य शिशु के मानसिक और शारीरिक विकास को बढ़ाना है। इससे पूर्व शिशु का भोजन सिर्फ पेय पदार्थ जैसे दूध और जल पर आधारित है। इस संस्कार के बाद शिशु को अन्न देना भी शुरू कर दिया जाता है। मुंडन संस्कार- जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। जन्म के समय से उत्पन्न अपवित्र केशों को मुंडन संस्कार द्वारा हटाया जाता है। विद्या आरंभ संस्कार- इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है। कुछ लोग मुंडन संस्कार से पहले ही शिशु को शिक्षा देना प्रारंभ कर देते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग मुंडन संस्कार के बाद शिक्षण आरंभ करते हैं। प्राचीन समय में शिशु को विद्या के लिए गुरुकुल भेजने की परंपरा थी।
जन्म से मृत्यु तक ये 16 काम करना है बहुत जरूरी, क्योंकि..
 शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हमारे लिए आवश्यक माना गया है। मनुष्य जीवन में हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से सोलह संस्कारों का पालन करना चाहिए। यह संस्कार व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं। प्राचीन काल से इन सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारों का निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है। ये सोलह संस्कार क्या-क्या हैं – 
 1-गर्भाधान संस्कार- 
 यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।











2-पुंसवन संस्कार- 
गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।











3-सीमन्तोन्नयन संस्कार-
 
यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।



4-जातकर्म संस्कार- 

 बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।





5-नामकरण संस्कार-
 
शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है।













6-निष्क्रमण संस्कार-
 
निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।









7-अन्नप्राशन संस्कार- 
यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।









  

8-मुंडन संस्कार-
 
जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।




9-विद्या आरंभ संस्कार- 

इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है।












10-कर्णवेध संस्कार- 
 इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।





11-उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार- 
उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।





12-वेदारंभ संस्कार- 

इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।








13-केशांत संस्कार- 
केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।


14-समावर्तन संस्कार-

  समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।








15-विवाह संस्कार- 
यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।








16-अंत्येष्टी संस्कार- 

अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है।